Friday 14 September 2018

" नेतानगरी "

हो गयी हैं बातें अब काफी जो मोहब्बतों की,
चलो थोड़ी करते हैं बात राजनीती की,
गाड़ी, घोड़ा, बंगला और राज गुप्त दौलत का,
कि कैसे इन नेताओं के चर्चे होते गये,
कोई कहे दिन है तो कोई कहे रात आज,
जनता भी बोले इनके वादे झोल हो गये,
बात करते हैं घर, बिजली, पानी की अब,
फाईलों में दर्ज होकर पन्ने गोल हो गये,
माईक और मंच का तो साथ जन्मजात का है,
देखो मंच के वो बड़े बोल फेल हो गये,
काली सदरी के संग टोपी है सफ़ेद भाई,
देखो कुर्ते की जेब में भी छेद हो गये,
साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाने लगे,
जब से इन नेताओं के हथकंडे ढेर हो गये,
आम आदमी तो और आम ही होता गया है,
खास थे जो वो तो और खास ही हैं हो गये,
मज़हब के नाम का जो गन्दा खेल खेलते हो,
देखो आज देश के हालात कैसे हो गये,
वक़्त है अभी भी झूंठे वादे सारे छोड़ दो तुम,
देखो कैसे नाम वाले बदनाम सारे हो गये.....

-प्रशांत द्विवेदी 

Friday 17 August 2018

बीता युग दोहराता हूं...

इक कर्मठ नेता के जीवन की,
ज्ञान-ध्यान और सुध-बुध की,
हर गाथा आज सुनाता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

सर्द और ठिठुरन के दिन में,
ग़ुलाम देश की हर मुश्किल में,
इक नाम नया जब जन्मा था,
शुभनाम 'अटल' तब गूंजा था,

जैसे-जैसे हर दिन गुज़रा,
ज्ञान-बुद्धि का अड़ा था पहरा,
थी कलम हांथ में और रूह पर,
छाप मुल्क का पड़ा था गहरा,

फिर खड़े हुए पैरों पर अपने,
सब सुख त्यागे चुने देशभक्ति के सपने,
उन सपनों की हर व्यथा बताता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

वो बने देश के सर्वेसर्वा,
पिया घूंट राजनीति का कड़वा,
कलम हाँथ में मुख पर तेज़ अचूक सा,
देश-विदेश में बना इक रिश्ता अटूट सा,

भारत रत्न सपूत का तमगा पाकर,
स्मरण किया भारत माँ को शीश झुकाकर,
किये सफल प्रयास देशहित में जब-जब,
शीश उठा भारत माँ का फख़्र से तब-तब,

जो ठन गयी वो होनी होती है,
हर होनी में कुछ अनहोनी भी होती है,
वो 'अटल' शख्सियत विदा ले गयी सबसे,
नम आँखें हैं यादें उमड़ रही हैं तबसे,

याद रहेगी हर ख्वाहिश जिनके जीवन की,
उन अजर-अमर देश के प्रहरी की,
हर गाथा आज सुनाता हूं,
मै बीता युग दोहराता हूं,

मै बीता युग दोहराता हूं...

- प्रशांत द्विवेदी

Tuesday 10 July 2018

इक हमसफर...

आजकल बेसुध सा चलता हूं 
इन आड़ी-तिरछी राहों पर,
कि कहीं कोई ऐसा हमसफर तो होगा 
जिसे साथ चलने की इक तलब सी होगी,
समझ भी होगी जिसमें फिक्र भी होगी 
और कम से कम इनायत तो होगी उसमें,
कैसा होगा वो जहां ज़रा अंदाज़ा तो लगाना,
ज़िंदगी की ज़रूरत पे वक़्त का तकाज़ा तो लगाना,
रूठूंगा नहीं ज़िंदगी से कभी 
भले तन्हाई अकेला सहारा क्यूं ना हो,
मोहब्बत भी लाज़मी है नाचीज़ दिल की,
फक़त हमसफर की इजाज़त तो लेकर आना,
कहते हैं कि उनकी किस्मत बड़ी बुलंद होती है 
जिनके माथे पर ज़रा भी शिकन ना हो,
मैंने भी कोशिश की शिकन दूर करने की,
पर कम्बख़्त ज़िंदगी है कि वक़्त के कहने पर 
हांथ ही खड़े कर देती है,
तलाश आज भी जारी है ऐसे हमसफर की 
जो मुझे मुझसे ज्यादा अपना समझे,
अरे ज़िंदगी ना सही कम से कम अश्कों का 
बोझ संभालने वाला इक कंधा तो समझे...

- प्रशांत द्विवेदी

ख्याल और ज़िंदगी...

यूं राह तकती रह जाती है ज़िंदगी अक्सर नम आँखों से,
कि लौटता नहीं है वक़्त कभी बेबस अधूरे ख्यालों से,
चालें भी क्या कमाल चली ज़िंदगी ने मुश्किल सफर में,
कि बाज़ी के इंतज़ार में ही हार गया मैं उन सवालों से,
झूंठे दिलासे देती थी ज़िंदगी मुस्कुराहट के हर किस्से में,
कि जुनून सा उमड़ता था जूझने का बेसिर-पैर के बवालों से,
तकल्लुफ़-ए-ज़िंदगी भी मशगूल हो जाती है इस गहरी सोंच में,
कि दिल आख़िर क्यूं नहीं संभलता रोज़-रोज़ के इन हवालों से...
बड़ा चिढ़ चुका है 'प्रशांत' अब तसल्ली भरी इन बातों से,
कि बदलता नहीं है वक़्त ख्वाहिशों के इन मायाजालों से...

जो बोलोगे मान लूंगा...

क्यूं हो ख़फा मुझसे ऐसी क्या थी ख़ता मेरी,
क्यूं हो जुदा मुझसे आख़िर क्या है वजह ऐसी,
तुम दिन को रात बोलोगे तो मै मान लूंगा,
तुम नफ़रत को मोहब्बत के अल्फाज़ बोलोगे,
मै मुस्कुराकर मान लूंगा,
तुम बेरुखी को अपनी बेमतलब बात बोलोगे,
मै बिन कुछ बोले उसे मान लूंगा,
तुम सच्ची चाहत को मेरी इक खेल बोलोगे,
फिक्र मत करो मै वो भी मान लूंगा,
मै मान लूंगा हर वो बात तेरी,
जो झूठा साबित करती हो मेरे सच्चे दिल को,
मै मान लूंगा हर वो बात तेरी,
जो मुझे मेरी नज़रों में ही गिराती हो,
याद रखना इक अदब सी थी मेरी चाहत में तेरी ख़ातिर,
अरे चूज़े जैसा होकर भी आसमां से तारे तोड़ने चला था,
ख़ैर ना चाह कर भी दबा दी मैंने हर वो बात जो ज़ुबां पे थी मेरे,
तुझे हर पल बस मुस्कुराता देखने की हसरत जो थी मेरी,
वो कहते हैं ना समय से पहले और भाग्य से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता,
बस इन्हीं शब्दों को मैंने अब दुनिया बना ली है अपनी,
तुम फिक्र मत करो अब ख़ामोश हूं मै हर पल हर वक़्त,
बस इल्तज़ा इतनी सी है कि मेरे अश्कों की सच्ची जगह कहां होगी,
तुम इशारे से मुझे कुछ भी बता देना,
एे ज़िंदगी मै सब सच मान लूंगा...

- प्रशांत द्विवेदी